शादी के पूर्व वर पक्ष की ओर से कन्या पक्ष के सामने रुपये, सामान आदि की शर्त तिलक अथवा दहेज कहलाती है। पद और प्रतिष्ठा के हिसाब से वर का भाव कमता या बढ़ता है। इस प्रथा द्वारा वर-पक्ष कन्या-पक्ष का शोषण कर अपनी सामंतवादी प्रवृति का परिचय देता है। अनेकानेक कन्या-पिता इस शोषणवृति के भयंकर अभिशाप से अभिशप्त है। तिलक-दहेज प्रथा के भयंकर प्रचलन के कारण ही कन्या का जन्म लेना ईश्वरीय अभिशाप माना जाता है। यह तिलक-दहेज प्रथा ऐसी कलंकिनी प्रथा है जो शादी को दो हृदय का मेल न बना कर खरीद-बिक्री का सौदा बनाती हैं।
कुछ लोगों का कहना है कि दहेज प्रथा का इतिहास बहुत पुराना है। पुराणों, प्राचीन ग्रंथों में इसकी चर्चा आयी है। जनक ने भी सीता की शादी में दहेज दिया है। लेकिन तब की बात और थी। उस समय कोई शर्त नहीं थी। शादी के बाद कन्या की विदाई के समय लोग खुशी से सामर्थ्य के अनुसार दहेज देते थे। आज तो स्थिति ही विपरीत है। दहेज का अर्थ हो गया है लड़के की बिक्री।
इस प्रथा ने हमारी कोमल भावनाओं का गला टीप दिया है। पुत्री के जन्मोत्सव के समय ही पिता भावी संकट का अनुमान लगाने लगता है। पाई-पाई जोड़कर वह बैंक के हवाले करने में लग जाता है। अपनी सुख-सुविधाओं को वह बैंकों के हवाले कर देता है। जब लड़की बड़ी होकर सयानी हो जाती है तब पिता के जूते घिसने लगते हैं। लड़की लाख पढ़ी-लिखी सुंदर और सुघड़ हो, भला उसे कौन पूछता है! इस प्रथा के कारण कन्या अपने पिता के घर में रोदन का कारण बन गई है तथा पति के घर में भी निरादर तथा अपमान पाती है।
दहेज प्रथा के इतने कुपरिणाम हैं जिसे शब्दों में व्यंजित करना भी आसान नहीं है। अनमोल विवाह, बहु को जलाना, पिता की दीनता आदि कितना गिनाया जाय म अखबारों में रोज़ एक न एक खबर ऐसी जरूर मिलती है, जिसमें इस कुप्रथा का दुष्परिणाम दिखाई देता है। दहेज-लोभियों का कारनामा बहु-हत्या के रूप में दिखायी देता है।
लेकिन हाँ, दहेज प्रथा की खामियां तभी दिखाई पड़ती हैं जब हम तटस्थ होते हैं या फिर लड़की के पिता होते हैं। जब लड़के का बाप होते हैं तो पगड़ी ऊँची हो ही जाती है। इस प्रथा को रोकना तभी संभव होगा जब सामाजिक मानसिकता में बदलाव लाया जाएगा। इसमें महिलाओं को सामने आना होगा। कल दहेज के चलते रोती हुई बालिका जब आज लड़के की माँ हो जाती है तो अपना दुख भूल जाती है। इस तरह महिलाओं को आगे बढ़ना होगा। सच कहा जाए तो यह काम महिला से ही संभव हो सकता है। इसे रोकने के लिए कठोर कानून की व्यवस्था होनी चाहिए।
सरकारी कानून के माध्यम से इस प्रथा को रोकने के लिए बहुत उपाय किये गए हैं। लेकिन जबतक सामाजिक मनोवृत्तियों में परिवर्त्तन नहीं होता है तबतक सब बेकार है। कानून के निर्माता और नियंता भी इससे अपने-आपको अलग कहाँ कर पाते हैं। इसलिए नवयुवक और नवयुवतियों तथा महिलाओं को आगे बढ़कर इसे रोकने का कोई ठोस उपाय सोचना चाहिए।
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