Violent and Evil Oraon People

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The Oraon or Uraon tribe is a small minority community that can be found in different parts of India and South Asia. While they are not indigenous to Jharkhand state or the eastern part of India, their ancestors used to speak a language called Kurukh, which belongs to the Dravidian language family group. Although a small minority still speak Kurukh, these primitive Oraon people have nothing to do with the Santhals, Mundas, Hos, and Bhumij of Jharkhand, who belong to the Austroasiatic Munda ethnic background and are the original inhabitants of East India, Mayurbhanj, and Keonjhar districts of Orissa.   Anthropologists, ethnologists, and linguists have claimed that these primitive Oraons used to live in the southern parts of India but then migrated to other parts of South Asia. Oraons are very different and distinct from Austroasiatic Munda people in terms of looks, behavior, nature, physical characteristics, etc.   I have seen and observed with my own eyes,   Oraons are very vio

बेकारी की समस्या व बेरोजगारी

भारत में बेकारी की समस्या प्रसन्नता के लोक में दुःख का प्रवेश है और हर्ष की पूनम रात्रि में राहु का चंद्रग्रहण है। यह आर्थिक व्यवस्था की अक्षमता एवं दुर्बलता का प्रतीक है। दूसरी ओर बेकारी की समस्या देश की प्रशासनिक दुर्बलता का परिचय देती है। इस समस्या ने भारत को छिन्न-भिन्न कर दिया है। राष्ट्र का नैतिक पतन हो रहा है और सुख-समृद्धि टूट रही है।

बेकारी निकम्मेपन और भटकाव की नियति है। नौजवान जिसकी भुजाओं में ताकत है मन में काम करने का उत्साह, वह भी आज चारों ओर से हार थक कर बैठ चुका है। उसकी आँखें के सामने ताश के पत्ते की तरह पत्नी की चाहत, बहन की शादी, बूढ़े माँ-बाप की बीमारी, नवजात शिशु की परवरिश की जिम्मेदारियां बिछी हैं। वह एक-एक कर नहीं, एक साथ सब को निपटाना चाहता है, पर आर्थिक अभाव उसके सारे विचारों को तह कर देता है। पिता की पनीली आँखें उसकी पढ़ाई के लिए दिए गये खर्च का प्रतिदिन चाहती हैं पर बेटे की आँख रूबरू होने से कतराती है। परिणामतः वह अपने दरवाजे पर नहीं, चौराहे पर की चाय दुकान वाले अड्डे पर बैठने लगा है, बैठकबाजों मौका ताक कर उसे अपने गिरोह में शामिल कर लिया है। उसकी रचनात्मक प्रतिभा कुंद हो गई है।

योग्यता और क्षमता रहने पर भी अनुकूल नौकरी और व्यवसाय नहीं मिलना भी बेकारी कहलाती है। यही विष-वमन कर रही है और उसके विष से सारा राष्ट्र विषाक्त हो रहा है। इसके भयंकर अभिशाप से चतुर्दिक कुंठा, निराशा व्याप्त हो रही है। यह राष्ट्र के उज्जवल भविष्य को धूमिल कर रही है। यह समस्त राष्ट्र का अभिशाप है। विश्व प्रगतिशील राष्ट्र अमेरिका, रूस आदि सभी देशों में बेकारी का उल्लेख तक नहीं है। सभ्य राष्ट्र अपने श्रम की महत्ता को पहचानता है। श्रम का उचित मूल्यांकन ही राष्ट्र का उज्जवल भविष्य होता है।

बेकारी का तीन वर्ग भारत के सामने खड़ा है। एक वर्ग निरक्षरों का है और दूसरा वर्ग साक्षरों का है। बेकारी का तीसरा वर्ग शिक्षितों का है। निरक्षर बेरोजगार मजदूर वर्ग के हैं। ऐसे लोग खेत विहीन हैं और उन्हें किसी कारखाने में भी नौकरी नहीं मिल पायी है। अपने गाँव में कोई ऐसा काम भी उन्हें नहीं मिल पाता है, जिससे उन्हें रोज़ी-रोटी मिल सके। इनमें से कुछ नौकरी की खोज में शहर की ओर जाते हैं और किसी प्रकार अपना पेट भर पाते हैं। इनमें से ही कुछ निकल पड़ते हैं जो अत्यंत ही निराश होकर चोरी, डकैती का कार्य करते हैं। निरक्षर बेरज़गार वर्ग की पत्नियां या तो खेत में काम करती हैं, लेकिन सर्वहारा वर्ग के लिए बेकारी की समस्या मध्य वर्ग के समान कठिन और दुरूह नहीं है।

मध्यवर्ग की स्त्रियाँ न तो खेत में काम कर पाती हैं और न वह शहर में मजदूरी ही कर पाती हैं। शारीरिक श्रम करने की शक्ति उनकी नहीं होती है। वे बलहीन होते हैं। शारीरिक योग्यता के अभाव में वे घोर निराशा का जीवन जीते हैं। विद्यालय और महाविद्यालय की शिक्षा समाप्त कर वे जब जीवन की वास्तविक धरती पर खड़ा होते हैं तब उन्हें कल्पना के सुंदर महल ठहते प्रतीत होते हैं। उनका दिव्य स्वप्न बिखर जाता है। वे आदर्श के लोक से यथार्थ के लोक में आ गिरते हैं। किरानी की नौकरी भी नहीं मिल पाती है। वे घोर निराशा का जीवन जीते हैं।

स्वतंत्र भारत का युवा विकृति स्वरूप वर्तमान को कमि्पत करता है और भविष्य को एक चुनौती दे रहा है। इस विकट समस्या का निदान शिक्षा नीति में परिवर्त्तन लाना जरूरी है। वह सैद्धान्तिक शिक्षा को व्यावहारिक शिक्षा से जोड़ना चाहते हैं। भारत की प्राथमिक शिक्षा को वह कृषि प्रधान बनाना चाहते हैं। महात्मा गाँधी ने इस कारण ही गृह उद्दोग धंधा पर बल देना चाहा, लेकिन दुर्भाग्य का विषय यह है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही भारत से कुटीर उद्योग धंधा लुप्त होता जा रहा है। भारत के कृषक खेती के लिए आसमान की ओर निहारते हैं। वे अपने बेरोजगार शिक्षित पुत्र के साथ काटते हैं। वे अपने बेरोजगार शिक्षित पुत्र के साथ वर्ष के चार महीने चौपाल के गम के साथ काटते हैं। महात्मा गाँधी द्वारा प्रसारित आमन्त्रित-" खेत की ओर लौटो और गाँव की ओर चलो, जीवन आशा की ज्योति दिखता है। "

बेकारी के समाधान के लिए जरूरी है शिक्षा को रोजगारोन्मुख बनाया जाय, खेती को वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से समुन्नत किया जाए, गाँव और शहर में कुटीर और भारी उद्दोगों का जाल बिछा दिया जाय तथा सरकार द्वारा पंचवर्षीय योजनाओं के बदले बेरोजगारों को रोजगार में खपाने कब लिए एक वर्ष की योजना बनाई जाय। 

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