Violent and Evil Oraon People

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The Oraon or Uraon tribe is a small minority community that can be found in different parts of India and South Asia. While they are not indigenous to Jharkhand state or the eastern part of India, their ancestors used to speak a language called Kurukh, which belongs to the Dravidian language family group. Although a small minority still speak Kurukh, these primitive Oraon people have nothing to do with the Santhals, Mundas, Hos, and Bhumij of Jharkhand, who belong to the Austroasiatic Munda ethnic background and are the original inhabitants of East India, Mayurbhanj, and Keonjhar districts of Orissa.   Anthropologists, ethnologists, and linguists have claimed that these primitive Oraons used to live in the southern parts of India but then migrated to other parts of South Asia. Oraons are very different and distinct from Austroasiatic Munda people in terms of looks, behavior, nature, physical characteristics, etc.   I have seen and observed with my own eyes,   Oraons are very vio

हमारी शिक्षा व्यवस्था के दोष



ज्ञान के बिना मनुष्य पूर्ण नहीं होता, उनका जीवन सार्थक नहीं होता। ज्ञान है जो अनुभव से मिलता है, शिक्षा से प्राप्त होता है। उधर आज के विद्यार्थी, शिक्षक और शिक्षण संस्थाएँ हैं जिनमें अनेक प्रश्नवाचक लगे हुए हैं। विद्यार्थियों को उद्दण्ड और अनुशासनहीन माना जाता है। शिक्षकों को अयोग्य और उत्तरदायित्वहीन कहा जाता है। शिक्षण संस्थाओं को अनाथालयों के समतुल्य गिना जाता है। अतः कुछ ऐसे तत्त्व अवश्य हैं जो अधिकृत रूप से शिक्षा संसार में घुसे हुये हैं। इन्हें निकाल बाहर करना और इनके स्थान पर उपयुक्त तत्त्वों का समावेश करना परम् आवश्यक है।

वर्त्तमान शिक्षा-प्रणाली राष्ट्रीय-स्तर पर सुनियोजित नहीं है। पढ़कर नौकरी प्राप्त करना ही उसका उद्देश्य है। लार्ड मेकाले की भूमिका अभी भी चली आ रही है। आज अंग्रेजी भाषा भले ही शिक्षा का माध्यम न हो फिर भी अंग्रेजी के प्रति आकर्षण बना हुआ है। सन् 1921 ई. में महात्मा गाँधी ने अपने पत्र 'यंग-इण्डिया' में लिखा था---"आज हमारी मातृभाषाओं को पदच्युत करके अंग्रेजी ने बलात, हमारे हृदय पर अधिकार कर लिया है, अंग्रेज़ी के ज्ञान के बिना ही भारतीय प्रतिभा का पूर्ण विकास होना चाहिए। स्वतंत्रता मिलते ही 21 सितंबर सन् 1947 ई. के हरिजन में गाँधी जी ने लिखा था--"इस आवश्यक परिवर्त्तन के लिए एक दिन की देर भी राष्ट्र की सांस्कृतिक क्षति है। परंतु आज भी अंग्रेजी के प्रति व्यापक मोह बना हुआ है। "

विषयों की अधिकता आज भी शिक्षा का दोष है। विद्यार्थियों को अनेक ऐसे विषयों का अध्ययन करना पड़ता है जिनका उसको भावी जीवन से कोई संबंध नहीं। प्राचीन शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थियों को वही विषय पढ़ाया जाता था जिसका संबंध भावी जीवन से होता था।

आज की परीक्षा-प्रणाली भी दूषित है। वर्ष भर के कार्य को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता। वर्षान्त की लिखित परीक्षा ही पास होने की कसौटी होती है। परिणामस्वरूप विद्यार्थी वर्ष भर इधर-उधर की बातों में रहकर परीक्षा के एक या दो महीने पूर्व दिन-रात परिश्रम करते हैं। स्वास्थ्य की हानि भी होती है, सम्पूर्ण पाठ्यक्रम का अनुशीलन भी नहीं हो पाता। पुनः परीक्षा के समय अनुचित साधनों का प्रयोग भी ये विद्यार्थी करते हैं।

शिक्षक और विद्यार्थियों में कर्त्तव्य के प्रति उदासीनता की भावना भी बढ़ती जा रही है । उनके आपस के संबंध भी यथोचित एवं मधुर नहीं हैं। अधिकांश स्कूल एवं विद्यालय शिक्षा का मंदिर न होकर शिक्षा के बाजार बन गए हैं। न आज के शिक्षक आदर्श शिक्षक हैं, न आज के विद्यार्थी आदर्श विद्यार्थी । ऊँचे से ऊँचे दाम पर अपने मस्तिष्क को बेचना शिक्षक का उद्देश्य होता है, बिना उचित आभार व्यक्त किये अभिभावकों की आर्थिक स्थिति के अनुसार ज्ञान को खरीदना विद्यार्थियों का उद्देश्य होता है। शिक्षक ट्यूशन पढ़ाने को मजबूर हो जाते हैं, विद्यार्थी भी ट्यूशन पढ़ने के लिए मजबूर होते हैं। इतना होते हुए भी न तो शिक्षकों की आर्थिक समस्या सुलझ पाती है न विद्यार्थियों की संतोषजनक पढ़ाई हो पाती है।

आजकल की अधिकांश शिक्षण संस्थाएँ मानो धर्मशाला बनी हुई हैं। इन शालाओं में वे ही नवयुवक आते हैं जिन्हें बेकारी का समय काटना होता है। अच्छी नौकरी मिलते ही वे संस्था से विदा हो जाते हैं।

अनेक गैर-सरकारी शिक्षण संस्थाओं के अधिकारी वर्ग का उद्देश्य आर्थिक लाभ एवं व्यक्तिगत प्रभाव होता है। अध्यापक-अध्यापिकाओं एवं छात्र-छात्राओं के चुनाव में इनकी विशेष नीति का पालन किया जाता है। अधिकारी वर्ग छात्रों के प्रवेश, उनके शिक्षण एवं परीक्षाफल में अनुचित हस्तक्षेप भी करते हैं।

शिक्षण संस्थाओं में उचित पुस्तकों का भी अभाव होता है। पुस्तकें यदि होती भी हैं तो अनुभवहीन एवं अनधिकारी व्यक्तियों की। ये पुस्तकें धनोपार्जन के व्यापारिक उद्देश्य से लिखी हुई होती हैं। विद्यार्थियों को मस्तिष्क की भूख इन पुस्तकों से शांत नहीं हो सकती।

अनुत्तीर्ण छात्रों की विशाल संख्या भी इस संदर्भ में विचारणीय है। दूसरे देशों की तुलना में भारत के अनुत्तीर्ण छात्रों की संख्या कहीं अधिक है।

अभिभावकों की उदासीनता भी आज की शिक्षा का एक दोष है। बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिला देना और पुस्तकों आदि का प्रबंध कर देना मात्र ही वे अपना कर्त्तव्य समझते हैं। उनका अध्ययन किस तरह चल रहा है, वे पाठशाला जा रहे या और कहीं ? उनकी गतिविधियाँ क्या हैं ? आदि बातों की चिंता उन्हें नहीं होती।

धार्मिक और नैतिक शिक्षा का अभाव भी खटकने वाला है। ऐसी शिक्षा से कर्त्तव्य के प्रति दृढ़ता, कर्त्तव्य-पालन के प्रति लगाव आदि की भावनाएँ आती हैं।

उच्च शिक्षा सबके लिए सुलभ भी नहीं है। अत्यधिक व्यय-साध्य होने के कारण योग्य एवं परिश्रमी, किन्तु निर्धन छात्र उसे प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं।

वर्त्तमान शिक्षा-प्रणाली के अभावों को दूर करना और उनकी त्रुटियों को परिमार्जित करना आज की राष्ट्रीय आवश्यकता है। शिक्षण-पध्दति में सुधार करके अच्छी और सस्ती पाठ्य-पुस्तकें तैयार करके, छुट्टियों को कम करके और शिक्षण का कार्यकाल बढ़ाकर अध्यापन के स्तर को ऊँचा उठाना होगा। शिक्षक और विद्यार्थियों का संबंध घनिष्ठ बनाना होगा। अच्छे शिक्षकों को अधिक संख्या में रखना होगा।

आज की परीक्षा-प्रणाली में भी परिवर्त्तन आवश्यक है। विद्यार्थियों को उत्तीर्ण करते समय वर्ष भर के कार्य को दृष्टि में रखना होगा। विद्यालय में उनके व्यवहार, आचरण एवं उनकी कार्य-प्रणाली को भी परीक्षा-फल के समय महत्त्व देना होगा। पुनः आवश्यकता एवं योग्यता के अनुसार विद्यार्थियों के लिए विषयों का चुनाव करना भी आवश्यक है। मातृ भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने में भी अनेक कठिनाइयां दूर हो जायेंगी।

इन व्यवस्थाओं के द्वारा ही हम विद्यार्थियों को पूर्ण जीवन के लिए तैयार कर सकेंगे।

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